शादी-ब्याह: बढता दिखावा-घटता अपनापन

हमें यह जानना होगा कि अगर समाज में दिखावे की प्रवृत्ति बढ़ रही है तो इसकी वजह क्या है?
शादी-ब्याह: बढता दिखावा-घटता अपनापन
शादी-ब्याह: बढता दिखावा-घटता अपनापन

आज लोगों को पहले की तुलना में पैसे कमाने के ज्यादा विकल्प मिल रहे हैं। पहले लोग अपनी सीमित आमदनी में भी संतुष्ट रहना जानते थे। अब वे सोचते हैं कि हमारे पास और क्या होना चाहिए, जिससे समाज में हमारा स्टेटस ऊंचा नजर आए। मुझे याद है, बचपन में जब किसी परिवार को अपने लड़के/लड़कियों की शादी करनी होती थी, लड़की वाले किसी न किसी विश्वासपात्र पुरुष के माध्यम से बात आगे बढ़ाते थे, थोड़ी बहुत जानकारी गाँव में जाकर अपने रिश्तेदारों से एकत्र कर लेते थे। कुछ संतुष्ट होने पर दो-चार रिश्तेदारों, परिचितों को लेकर लड़के वालों के घर जाते थे, आने की सूचना मिलने पर लड़के के परिवार का मुखिया अपने कुछ पट्टिदारों, परिचितों को बुला लेते थे, उनका आपस में अभिवादन, परिचय के बाद बातचीत प्रारंभ होती थी। लड़की वालों को विदा करने के बाद परिवार का मुखिया अपने पट्टिदारों, परिचितों से उस रिश्ते के बारे में विचार विमर्श करता था। लड़की के परिवार व संस्कार के बारे में परिचितों के माध्यम से जानकारी घर बैठे मिल जाती थी। इससे अपनत्व व सद्भाव बना रहता था। लड़के का तिलक हो या लड़कियों की बारात आनी हो, किरोसिन ऑयल का पेट्रोमेक्स, एक सामान्य सा लाउडीस्पीकर, जिस पर कुछ मधुर भजन, संगीत, गाने, एक साधारण सा टेंट। मेहमानों के लिए घर-घर से एकत्र की गई चारपाई, बिस्तर, तकिया, बर्तन, दूध, दही कुछ तो एकत्र किए जाते थे लेकिन अधिकांशतः लोग खुशी-खुशी दे जाते थे कि गांव में मेहमान आएंगे, तो कोई कमी न हो। अपने घरों से लोग नए-नए चद्दर, सामान देते थे। उनका मकसद यह रहता था कि अगर कोई कमी होगी तो पूरे गांव, मोहल्ले की बेइज्जती होगी। जिस घर में बारात आनी है, उस घर में न्यूनतम एक माह पहले से गाँव की, पास पड़ोस की महिलाएँ एकत्र होकर गेहूं-चावल साफ करना, मसाला तैयार करने में सहयोग करना मंगल गीतों के साथ प्रारंभ हो जाते थे। खास रिश्तेदार घर बेटियाँ, भांजे-भगिनी, ममहर व उनसे सम्बन्धित रिश्तेदार, फुफहर व उनसे सम्बन्धित रिश्तेदार, ददिहाल से सम्बन्धित लोग 15 दिन से लेकर एक माह पहले सहयोग करने आ जाते थे। ब्याह वाले घर के पास से गुजरने वाले दूसरे गांव/मोहल्ले के लोग भी मंगल गीतों को सुनकर समझ जाते थे कि इस घर में कोई शादी है। गांव का गरीब से गरीब परिवार भी अपनी यथाशक्ति शादी वाले घर में सहयोग करना अपना कर्तव्य समझता था। रिश्तेदारों के एकत्रित बच्चों के झुंड का कौतूहल कितना रमणीय होता था। व्यवहार में भी मेहमानों की उपयोगी वस्तुएं चावल, दही, चिउरा, आलू, आदि लाकर सहयोग करना, बारातियों/मेहमानों को बैठाकर खिलाना, खाना खिलाने में गांव के लोगों को द्वारा पानी, पत्तल, भोजन के एक एक सामान को परोसने की ललक। अतिथि देवो भव का जीता जागता नमूना होता था। लड़की की शादी में आये हुए बारातियों/मेहमानों के भोजनोपरान्त ही गांव के लोगों का भोजन ग्रहण करना। भोजन में सीमित व्यंजन होते थे, लेकिन उन सीमित व्यंजनों में मिठास होती थी। उनमें एक अपनत्व था, एक परिवार की शादी यानि पूरे गांव के प्रत्येक वर्ग, धर्म, जाति के लोगों का जुड़ाव रहता था।

त्रिदिवसीय बारात में कितना सामंजस्य और अपनत्व होता था। पहले दिन सूर्यास्त के पूर्व बाराती पहुँच जाते थे। द्वारचार, वैवाहिक कार्यक्रम, दूसरे दिन भोजनोपरान्त वर-वधू पक्ष का आपस में परिचय और शास्त्रार्थ, यानि एक तरफ बाराती और दूसरी तरफ घराती और उस गाँव ज्वार के लोग। शास्त्रार्थ में दोनों पक्ष के लोगों द्वारा विद्वतजनों को आमंत्रित किया जाता था कि कहीं शास्त्रार्थ में हार न जाएं। दोनों पक्षों में जीतने की ललक होती थी, जिसमें सैकड़ों की संख्या में लड़की के गाँव के लोग बैठकर शास्त्रार्थ से ज्ञानार्जन करते थे। क्या अदभुत दृश्य होते थे? तमाम वेद-पुराणों से लेकर सामाजिक बिन्दुओं की बातें होती थी। तीसरे दिन विदाई से पूर्व मिलना यानि वर और वधू के नाते-रिश्तेदारों का एक दूसरे से परिचय और गले मिलना, जिससे आपस में परिचय व अपनत्व बढ़ता था। लेकिन अब तो रात्रि में 10 बजे बारात पहुंची, 12 बजे तक घराती-बराती सब गायब, दो-चार खास रिश्तेदार व कुछ खास दोस्त बस। सुबह 7-8 बजे तक सब कुछ समाप्त। वर पक्ष, वधू पक्ष के खास रिश्तेदारों से भी अनजान-अनभिज्ञ। आज पेट्रोमैक्स की जगह पर लाखों रुपये के सजावटी लाईटें, लाउडस्पीकर की जगह कर्ण भेदक ध्वनि वाले डी.जे, एक साधारण टेंट की जगह लाखों के मंहगे मंहगे अतिथि भवन, गांव या मोहल्लों के लोगों का जुड़ाव सिर्फ व्यवहार देने तक सीमित है। जहां लड़कियों की शादी तय करने के लिए गांव व रिश्तेदारों का एक झुण्ड जाता था, लेकिन आज पड़ोसियों को भी शादी की सूचना शादी का निमंत्रण कार्ड मिलने के बाद पता चलती है।
हम बात कर रहे है- शादी समारोहों में होने वाली भारी-भरकम व्यवस्थाओं और उसमें खर्च होने वाले अथाह धन राशि के दुरुपयोग की, घटते अपनत्व की। टेंट, सामाजिक भवन सब बेकार हो चुके हैं। कुछ समय पहले तक शहर के अंदर मैरिज हाॅल में शादियाँ होने की परंपरा चली और अब शहर से दूर महंगे रिसोर्ट में शादियाँ होने लगी है। पांच सितारा, 7 सितारा होटलों व रिसाॅर्ट में लाखों रुपये खर्च करके शादी के सेट बनाए जा रहे है। जहाँ अपनत्व कम, दिखावे की बू अधिक आती है। बारातियों का स्वागत घराती नहीं बल्कि होटलों के अनजान सजे धजे बैरा करते है, कौन खाना खाया, कौन नहीं खाया, यह पूछने वाला कोई नहीं है। शहर व गाँव से दूर होने वाले इन समारोहों में, जिनके पास अपने चार पहिया वाहन होते हैं, वही पहुंच पाते हैं और मेजबान भी यही चाहते हैं कि सिर्फ चार पहिया वाले मेहमान ही आयोजन में शरीक हो। 
देखा-देखी मध्यम व निम्न वर्ग भी शादियों में ऋण लेकर, खेत, घर बेचकर पानी की तरह पैसे बहाने लगा है। फिल्मी अंदाज में फिल्माएं जाने वाले सगाई, जयमाल व शादी समारोह के कार्यक्रम फिल्मी अंदाज में और फिल्म समाप्त होते ही कुछ दिनों, महीनों में धरातल पर आते ही टूटने लगते है। पहले सीमित संख्या में सुनाई पड़ने वाले तलाक के मामले में अब सैकड़ों और हजारों की संख्या में सुनाई व दिखाई पड़ने लगे है। इसका भी सबसे बड़ा कारण नाते-रिश्तेदारों का दूर होना, अपनत्व का न होना ही है। कुछ लोगों को सिर्फ महिला संगीत, कुछ को रिसेप्शन, तो कुछ अति महत्वपूर्ण परिवारों (नाते-रिश्तेदार नहीं बल्कि धन-वैभव, उच्च पदस्थ परिवार) को सभी कार्यक्रमों में बुलाया जाता है।
इस आमंत्रण में अपनापन नहीं बल्कि मतलब के व्यक्तियों या परिवारों को आमंत्रित किया जाता है। अगर आपका सगा रिश्तेदार जो निहायत गरीब है, उसको निमंत्रण भी नहीं जाता। यानि प्रत्येक कार्य व रिश्तों की बुनियाद धन और स्वार्थ पर खड़ी की जाने लगी है। यानि अब वैवाहिक आयोजन पारिवारिक नहीं बल्कि वैभव प्रदर्शन के साधन बन गए हैं। जबकि विवाह एक ऐसा संस्कार है, जिसको मानवीय व सामाजिक मूल्यों की मर्यादा का पालन करते हुए सम्पन्न करना अपेक्षित होता है। इसलिए विवाह को सोलह संस्कारों में स्थान मिला है। शादियों में मानसिक संतुष्टि नहीं बल्कि मानसिक अवसाद पनपने लगा है। शादी समारोह में रस्म से ज्यादा दिखावा हो रहा है। पूजा-पाठ, मंत्रोच्चारण और सात फेरे से ज्यादा नृत्य-गीत में लोग मशगूल रहते हैं। 
निश्चित ही आपका पैसा, आपने कमाया, आपके घर खुशी का अवसर है, खुशियां मनाएं, पर किसी दूसरे की देखा देखी नहीं। ऋण लेकर अपने और परिवार के मान सम्मान को खत्म मत करिए। जितनी चादर हो उतना ही पैर फैलाइए। हमारे ऋषियों ने कहा है कि जो जरूरी काम है, वह करो। दिखावे से बचें।
आज हम आपके बीच विश्व हिन्दी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज द्वारा 1996 से त्रैमासिक तथा 2001 से मासिक रुप से प्रकाशित विश्व स्नेह समाज के विशेषांकों के प्रबल इतिहास की कड़ी में एक कड़ी और जोड़ते हुए ”हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी एवं साहित्य का प्रचार-प्रसार“ नामक विशेषांक प्रस्तुत कर रहे हैं। इस अंक को आप तक पहुंचाने में पत्रिका की सह संपादिका डाॅ सीमा वर्मा जी की कड़ी मेहनत व लगन को नकारा नहीं जा सकता। साथ ही साथ संपादक मंडल के सदस्या डाॅ0 वंदना अग्निहोत्री जी का सर्वाधिक आलेखों को एकत्र करने में, साथ ही डाॅ0 सुमा टी.आर., डाॅ0 अर्चना चतुर्वेदी का आलेखों को एकत्र करने में सक्रिय सहभागिता के लिए धन्यवाद। डाॅ0 सरस्वती वर्मा, श्री रामकृष्ण के.एस., श्रीमती वैशाली सालियान जी का संपादकीय सहयोग देने के लिए आभार प्रकट करते हुए इस अंक के विद्व लेखकों को भी लेखकीय सहयोग के लिए आभार प्रकट करते हैं।
साथ ही यह आशा करते हैं कि इस अंक की सफलता का श्रेय आप सब पाठकों की पाठकीय प्रतिक्रियाओं को जाएगा। पाठकों के प्राप्त विचार एवं सुझाव ही हमारे अमूल्य धरोहर हैं, जिससे हम अंकों को निखारने पर विचार करते हैं। पुनः आप सभी का आभार।  

Author

  • डाॅ0 गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी

    डाॅ0 गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी एक गद्य विधा के अच्छे लेखक हैं, जिनकी विशेषता कथा, निबंध, और यात्रा वृतांत में है। उनकी लेखनी में जीवन की गहराई और संवेदनशीलता की झलक मिलती है। डाॅ0 गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने अपने लेखन में मानवीय भावनाओं और अनुभवों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है, जिससे पाठक उनसे आसानी से जुड़ जाते हैं। उनकी रचनाओं में सजीव चित्रण और भाषायी सौंदर्य विशेष रूप से सराहनीय हैं।

    View all posts
4.8 9 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
4 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Rahul Sharma

Apka lekh pad kar bahut achha laga

गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी

आभार राहुल शर्मा जी

Rohit Upadhyay

Bahut sundar lekh

गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी

आभार आपका।